बे-निशाँ साहिर निशाँ में आ के शायद बन गया
ला-मकाँ हो कर मकाँ में ख़ुद मकीं होता रहा
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चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी से दिल हुआ ख़राब-आबाद
मैं दीवाना हूँ और दैर-ओ-हरम से मुझ को वहशत है
ऐ तीनत अबस अब बदी से बाज़ आ
है सनम-ख़ाना मिरा पैमान-ए-इश्क़
मस्त-ए-निगाह-ए-नाज़ का अरमाँ निकालिए
दिल है बहर-ए-बे-कराँ दिल की उमंग
पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत है वहाँ फ़र्ज़
अयाँ 'अलीम' से है जिस्म-ओ-जान का इल्हाक़
मैं नफ़्स-परस्ती से सदा ख़्वार रहा
शेर क्या है आह है या वाह है
इस जिस्म की है पाँच अनासिर से बनावट