जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब
मिरा मशरब है रिंदी रिंद को मज़हब से क्या मतलब
Wasi Shah
Gulzar
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Anwar Masood
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Parveen Shakir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(486) Peoples Rate This
तक़वे के लिए जन्नत-ओ-कौसर हुए मख़्सूस
वजूद अब मिरा ला-फ़ना हो गया
वा होते हैं मस्ती में ख़राबात के असरार
पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत है वहाँ फ़र्ज़
मैं दीवाना हूँ और दैर-ओ-हरम से मुझ को वहशत है
हर सर में ये सौदा है कि मैं ही मैं हूँ
ख़जलत से मरा जाता हूँ क्या ज़िंदा हूँ
ऐ तीनत अबस अब बदी से बाज़ आ
मैं नफ़्स-परस्ती से सदा ख़्वार रहा
अयाँ हो रंग में और मिस्ल-ए-बू गुल में निहाँ भी हो
क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त
दरमियान-ए-जिस्म-ओ-जाँ है इक अजब सूरत की आड़