क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त
दिल थाम के उस शोख़ को लिखने जो लगा ख़त
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दिल की तस्कीन को काफ़ी है परेशाँ होना
क़ुल्ज़ुम-ए-फ़िक्र में है कश्ती-ए-ईमाँ सालिम
नूर-ए-ईमाँ सुर्मा-ए-चश्म-ए-दिल-ओ-जाँ कीजिए
जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब
वा होते हैं मस्ती में ख़राबात के असरार
शेर क्या है आह है या वाह है
ग़म-ए-मौजूद ग़लत और ग़म-ए-फ़र्दा बातिल
मस्त-ए-निगाह-ए-नाज़ का अरमाँ निकालिए
रुस्वा-ए-इश्क़ है तिरा शैदा कहें जिसे
दैर-ओ-हरम हैं मंज़र-ए-आईन-ए-इख़तिलाफ़
अयाँ हो रंग में और मिस्ल-ए-बू गुल में निहाँ भी हो
हर सर में ये सौदा है कि मैं ही मैं हूँ