नक़्श-ए-क़दम हैं राह में फ़रहाद-ओ-क़ैस के
ऐ इश्क़ खींच कर मुझे लाया इधर कहाँ
Rahat Indori
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पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत है वहाँ फ़र्ज़
ग़म-ए-मौजूद ग़लत और ग़म-ए-फ़र्दा बातिल
आलम का वजूद है नुमूद-ए-बे-बूद
गोया ज़बान हाल थी 'साहिर' ख़मोश था
तक़वे के लिए जन्नत-ओ-कौसर हुए मख़्सूस
रुस्वा-ए-इश्क़ है तिरा शैदा कहें जिसे
किताब-ए-दर्स-ए-मजनूँ मुसहफ़-रुख़्सार-ए-लैला है
निशाँ इल्म-ओ-अदब का अब भी है उजड़े दयारों में
वजूद अब मिरा ला-फ़ना हो गया
चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी से दिल हुआ ख़राब-आबाद
कौनैन-ए-ऐन-ए-इल्म में है जल्वा-गाह-ए-हुस्न
क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त