ख़जलत से मरा जाता हूँ क्या ज़िंदा हूँ
आ'माल से अपने सख़्त शर्मिंदा हूँ
साहिर हूँ मिरा हश्र न जाने क्या हो
ज़िश्ती में सियह-ताब सा ताबिंदा हूँ
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गोया ज़बान हाल थी 'साहिर' ख़मोश था
या-रब मिरे दिल को कर अता सिद्क़-ओ-सफ़ा
अयाँ 'अलीम' से है जिस्म-ओ-जान का इल्हाक़
क़ुल्ज़ुम-ए-फ़िक्र में है कश्ती-ए-ईमाँ सालिम
रुस्वा-ए-इश्क़ में तिरा शैदा कहें जिसे
था अनल-हक़ लब-ए-मंसूर पे क्या आप से आप
चार उंसुर से बना है जिस्म-ए-पाक
सर-ए-अर्श-ए-बरीं है ज़ेर-ए-पा-ए-पीर-ए-मय-ख़ाना
क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त
वजूद अब मिरा ला-फ़ना हो गया
रुस्वा-ए-इश्क़ है तिरा शैदा कहें जिसे
हैं सात ज़मीं के तबक़ और सात हैं अफ़्लाक