मैं नफ़्स-परसती से सदा ख़्वार रहा
ज़ुल्मत-कदा-ए-ग़म में गिरफ़्तार रहा
ग़फ़लत से न दम भर को मिरी आँख खुली
बेहोश रहा कभी न होश्यार रहा
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
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कौनैन-ए-ऐन-ए-इल्म में है जल्वा-गाह-ए-हुस्न
मैं दीवाना हूँ और दैर-ओ-हरम से मुझ को वहशत है
जुनूँ के जोश में जिस ने मोहब्बत को हुनर जाना
जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब
यूँ तो हर दीन में है साहब-ए-ईमाँ होना
अहद-ए-मीसाक़ का लाज़िम है अदब ऐ वाइ'ज़
नूर-ए-ईमाँ सुर्मा-ए-चश्म-ए-दिल-ओ-जाँ कीजिए
दिल की तस्कीन को काफ़ी है परेशाँ होना
अज़ल से हम-नफ़सी है जो जान-ए-जाँ से हमें
दिल को यकसूई ने दी तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की सलाह
मरदूद-ए-ख़लाइक़ हूँ गुनहगार हूँ मैं
क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त