हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार
हमीं को नज़्म-ए-गुलिस्ताँ पे इख़्तियार नहीं
Wasi Shah
Allama Iqbal
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आओ कि कोई ख़्वाब बुनें
रंगों में तेरा अक्स ढला तू न ढल सकी
मता-ए-ग़ैर
जागीर
जश्न-ए-ग़ालिब
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
मुझे गले से लगा लो बहुत उदास हूँ मैं
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
आज
मिरे अहद के हसीनो
भूल सकता है भला कौन ये प्यारी आँखें
इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के