इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से
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हर क़दम मरहला-दार-ओ-सलीब आज भी है
सुब्ह-ए-नौ-रूज़
न तो ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
जश्न-ए-ग़ालिब
ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
फ़नकार
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
यकसूई
जागीर