जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया
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बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
बे पिए ही शराब से नफ़रत
तुम अपना रंज-ओ-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
लब पे पाबंदी तो है एहसास पर पहरा तो है
संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
विर्सा
अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ
कुछ बातें
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स