कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
क्या ख़बर थी वो भी हर्फ़-ए-मुख़्तसर हो जाएँगे
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बन के दुनिया का तमाशा मो'तबर हो जाएँगे
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना
बैठे हैं सुनहरी कश्ती में और सामने नीला पानी है
नुक़्ता
ज़मीं यख़-बस्ता हो जाती है जब जाड़ों की रातों में
मशरिक़ हार गया
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया
साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके