अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
मुफ़्लिसी तो भरी बरसात में बे-घर हुई है
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यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है