इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
सवाल दिल का नहीं है मिरी ज़बान का है
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मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
तुझ को पाने के लिए ख़ुद से गुज़र तक जाऊँ
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही