कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
सर उतर आते हैं शाहों के भी दस्तार के साथ
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इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ