कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
मशवरे करता है मुंसिफ़ जो गुनहगार के साथ
Ahmad Faraz
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Habib Jalib
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Allama Iqbal
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Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
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उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से