ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
कर दिया रात ने सूरज के हवाले मुझ को
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इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
तुझ को पाने के लिए ख़ुद से गुज़र तक जाऊँ