उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
अब वो गिन गिन के खिलाता है निवाले मुझ को
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कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं
कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से