इक कार-ए-मुहाल कर रहा हूँ
ज़िंदा हूँ कमाल कर रहा हूँ
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'सरशार' मैं ने इश्क़ के मअ'नी बदल दिए
ना-मुस्तजाब इतनी दुआएँ हुईं कि फिर
सहरा ही ग़नीमत है, जो घर जाओगे लोगो
इक हर्फ़-ए-शौक़ लब पे है और इल्तिजा के साथ
चेहरे को बहाल कर रहा हूँ
नींद टूटी है तो एहसास-ए-ज़ियाँ भी जागा
ज़र्रा
मेरे बदन में थी तिरी ख़ुशबू-ए-पैरहन
क्या हुआ हम पे जो इस बज़्म में इल्ज़ाम रहे
उजड़े हैं कई शहर, तो ये शहर बसा है
शहर में जब भी ज़ुलेख़ा से ख़रीदार आए
ख़ल्वत-ए-ज़ात है और अंजुमन-आराई है