ना-मुस्तजाब इतनी दुआएँ हुईं कि फिर
मेरा यक़ीं भी उठ गया रस्म-ए-दुआ के साथ
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ज़र्रा
इश्क़ तक अपनी दस्तरस भी नहीं
मिरे वजूद को उस ने अजब कमाल दिया
इक कार-ए-मुहाल कर रहा हूँ
मैं ने इबादतों को मोहब्बत बना दिया
उजड़े हैं कई शहर, तो ये शहर बसा है
इक हर्फ़-ए-शौक़ लब पे है और इल्तिजा के साथ
ख़याल हिज्र-ए-मुसलसल में आए हैं क्या क्या
नींद टूटी है तो एहसास-ए-ज़ियाँ भी जागा
ख़ल्वत-ए-ज़ात है और अंजुमन-आराई है
चेहरे को बहाल कर रहा हूँ