नींद टूटी है तो एहसास-ए-ज़ियाँ भी जागा
धूप दीवार से आँगन में उतर आई है
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ना-मुस्तजाब इतनी दुआएँ हुईं कि फिर
ख़ल्वत-ए-ज़ात है और अंजुमन-आराई है
मिरे वजूद को उस ने अजब कमाल दिया
उजड़े हैं कई शहर, तो ये शहर बसा है
इक हर्फ़-ए-शौक़ लब पे है और इल्तिजा के साथ
मेरे बदन में थी तिरी ख़ुशबू-ए-पैरहन
शहर में जब भी ज़ुलेख़ा से ख़रीदार आए
'सरशार' मैं ने इश्क़ के मअ'नी बदल दिए
चेहरे को बहाल कर रहा हूँ
क्या हुआ हम पे जो इस बज़्म में इल्ज़ाम रहे
मिरी तलब में तकल्लुफ़ भी इंकिसार भी था
इश्क़ तक अपनी दस्तरस भी नहीं