सुब्ह के शहर में इक शोर है शादाबी का
गिल-ए-दीवार, ज़रा बोसा-नुमा हो जाना
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पूरे चाँद की सज धज है शहज़ादों वाली
सुब्ह होते ही
गर्दिश-ए-सय्यारगाँ ख़ूब है अपनी जगह
घर से निकला तो मुलाक़ात हुई पानी से
जाने उस ने क्या देखा शहर के मनारे में
आश्नाई का फ़रिश्ता
इक रोज़ मैं भी बाग़-ए-अदन को निकल गया
इतने बहुत से रंग
भर जाएँगे जब ज़ख़्म तो आऊँगा दोबारा
चाहत
लहर-लहर आवारगियों के साथ रहा
महरान, मुझे दो