था अजल का मैं अजल का हो गया
बीच में चौंका तो था फिर सो गया
लुत्फ़ तो ये है कि आप अपना नहीं
जो हुआ तेरा वो तेरा हो गया
काटे खाती है मुझे वीरानगी
कौन इस मदफ़न पे आ कर रो गया
बहर-ए-हस्ती के उमुक़ को क्या बताऊँ
डूब कर मैं 'शाद' इस में खो गया
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दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
किस बुरी साअत से ख़त ले कर गया
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
भरे हों आँख में आँसू ख़मीदा गर्दन हो
कुछ कहे जाता था ग़र्क़ अपने ही अफ़्साने में था
लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
चालाक हैं सब के सब बढ़ते जाते हैं