हक़्क़ा कि वो जादा-ए-वफ़ा से भी फिरा
अहबाब-ओ-अज़ीज़-ओ-अक़रबा से भी फिरा
ऐ मदरस-तुल-उलूम जो तुझ से फिरा
सच पूछो तो ख़ाना-ए-ख़ुदा से भी फिरा
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नज़र की बर्छियाँ जो सह सके सीना उसी का है
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
ऐ बुत जफ़ा से अपनी लिया कर वफ़ा का काम
हज़ार हैफ़ छुटा साथ हम-नशीनों का
हूँ इस कूचे के हर ज़र्रे से आगाह
किस पे क़ाबू जो तुझी पे नहीं क़ाबू अपना
लहद में क्यूँ न जाऊँ मुँह छुपाए
रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर
सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियाँ से सुनी
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
जिस वक़्त का डर था वो शबाब आ पहुँचा