तारीफ़ बताऊँ शेर की क्या क्या है
नग़्मों की सदाक़त इस से ख़ुद पैदा है
असलियत-ए-हाल जिस से मख़्फ़ी रह जाए
हुशियार कि वो शेर नहीं धोका है
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रौशन है कि शाद-ए-सुख़न-आरा मैं हूँ
अब भी इक उम्र पे जीने का न अंदाज़ आया
अख़्लाक़ से जहल इल्म-ओ-फ़न से ग़ाफ़िल
दिल-ए-मुज़्तर से पूछ ऐ रौनक़-ए-बज़्म
तन्हा है चराग़ दूर परवाने हैं
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला
जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए
ता-उम्र आश्ना न हुआ दिल गुनाह का
अर्बाब-ए-क़ुयूद तुझ को क्या देखेंगे
परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
शहरों में फिरे न सू-ए-सहरा निकले