कोई लहजा कोई जुमला कोई चेहरा निकल आया
पुराने ताक़ के सामान से क्या क्या निकल आया
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ज़मीं तश्कील दे लेते फ़लक ता'मीर कर लेते
इक अज़ाब होता है रोज़ जी का खोना भी
शरीफ़ लोग कहाँ जाएँ क्या करें आख़िर
लोग हैरान हैं हम क्यूँ ये किया करते हैं
सह-पहर ही से कोई शक्ल बनाती है ये शाम
रोज़ खुलने की अदा भी तो नहीं आती है
दूर सहरा में जहाँ धूप शजर रखती है
आज भी जिस की है उम्मीद वो कल आए हुए
ये जो रब्त रू-ब-ज़वाल है ये सवाल है
एक इक मौज को सोने की क़बा देती है