कभी देखें जो रू-ए-यार दरख़्त

कभी देखें जो रू-ए-यार दरख़्त

अपने फूलों को समझें ख़ार दरख़्त

चार-सू है इन्हें का लिख पीड़ा

ये अनासिर के हैं जो चार दरख़्त

मेरे गुलज़ार में हैं शो'ले फूल

मेरे हर आह शो'ला-बार दरख़्त

सौ फ़साद एक इश्क़ में उठ्ठे

बोया इक तुख़्म उगे हज़ार दरख़्त

जब चला बाग़ से वो सर्व-ए-रवाँ

हो गए ताएरों को दार दरख़्त

जिस को तूबा ज़माना कहता है

तेरे घर में है साया-दार दरख़्त

तू ख़िज़ाँ में जो सैर को निकले

मिरे हो जाएँ बे-बहार दरख़्त

फल न लाया निहाल-ए-इश्क़ अपना

फले-फूले हज़ार बार दरख़्त

'बहर' क्या नश्शे में ख़ुश आते हैं

नहर-ए-गुलशन के दार पार दरख़्त

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