ज़ालिम हमारी आज की ये बात याद रख
इतना भी दिल-जलों का सताना भला नहीं
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तेरी हर इक बात है नश्तर न छेड़
बोलिए करता हूँ मिन्नत आप की
मर गए पर भी न हो बोझ किसी पर अपना
दाग़ बैआ'ना हुस्न का न हुआ
हम नाक़िसों के दौर में कामिल हुए तो क्या
मुद्दत से इल्तिफ़ात मिरे हाल पर नहीं
वस्ल में ज़िक्र ग़ैर का न करो
हम आज-कल हैं नामा-नवीसी की ताव पर
दम-ए-मर्ग बालीं पर आया तो होता
इस तरह ज़ीस्त बसर की कोई पुरसाँ न हुआ
महरम के सितारे टूटते हैं