हमारी गुफ़्तुगू सब से जुदा है
हमारे सब सुख़न हैं बाँकपन के
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कहीं वो सूरत-ए-ख़ूबाँ हुआ है
ऐ ख़िरद-मंदो मुबारक हो तुम्हें फ़र्ज़ानगी
जो जी में आवे तो टुक झाँक अपने दिल की तरफ़
क्या हुआ गर शैख़ यारो हाजी-उल-हरमैन है
दहन है तंग शकर और शकर है तिरा है कलाम
देखना उस की तजल्ली का जिसे मंज़ूर है
मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
इश्क़-बाज़ी बुल-हवस बाज़ी न जान
क्या मदरसे में दहर के उल्टी हवा बही
तू देख उसे सब जा आँखों के उठा पर्दे
हमारी अक़्ल-ए-बे-तदबीर पर तदबीर हँसती है
ज़ाहिद को हम ने देख ख़राबात में कहा