किसू मशरब में और मज़हब में
ज़ुल्म ऐ मेहरबाँ नहीं है दुरुस्त
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कोई देता नहीं है दाद बे-दाद
कभू तू रो तो उस को ख़ाक ऊपर जा के ऐ लैला
कभू बीमार सुन कर वो अयादत को तो आता था
इतना मैं इंतिज़ार किया उस की राह में
देख बुनियाद रब की आदम है
अदल से कर सल्तनत ऐ दिल तू तन के मुल्क में
कभू जो शैख़ दिखाऊँ मैं अपने बुत के तईं
जब पुकारे है वो अबे ओ होत
दहन है तंग शकर और शकर है तिरा है कलाम
एक दिन पूछा न 'हातिम' को कभू उस ने कि दोस्त
क्यूँकि दीवाना बेड़ियाँ तोड़े
हम तिरी राह में जूँ नक़्श-ए-क़दम बैठे हैं