तू ने ग़ारत किया घर बैठे घर इक आलम का
ख़ाना आबाद हो तेरा ऐ मिरे ख़ाना-ख़राब
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साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग
जुनूँ है फ़ौज फ़ौज और इस तरफ़ 'हातिम' अकेला है
दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया
किसू मशरब में और मज़हब में
कभू जो शैख़ दिखाऊँ मैं अपने बुत के तईं
इस ज़माने में न हो क्यूँकर हमारा दिल उदास
'हातिम' उस ज़ुल्फ़ की तरफ़ मत देख
मज्लिस में रात गिर्या-ए-मस्ताँ था तुझ बग़ैर
क़ुर्बान सौ तरह से किया तुझ पर आप को
तिरी निगह से गए खुल किवाड़ छाती के
देखूँ हूँ तुझ को दूर से बैठा हज़ार कोस
क्या उस की सिफ़त में गुफ़्तुगू है