वक़्त फ़ुर्सत दे तो मिल बैठें कहीं बाहम दो दम
एक मुद्दत से दिलों में हसरत-ए-तरफ़ैन है
Faiz Ahmad Faiz
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होवे वो शोख़-चश्म अगर मुझ से चार चश्म
तेरे आने से यू ख़ुशी है दिल
तू ने ग़ारत किया घर बैठे घर इक आलम का
बदन पर कुछ मिरे ज़ाहिर नहीं और दिल में सोज़िश है
जिस को देखा सो यहाँ दुश्मन-ए-जाँ है अपना
छल-बल उस की निगाह का मत पूछ
ये किस मज़हब में और मशरब में है हिन्दू मुसलमानो
बंदा अगर जहाँ में बजाए ख़ुदा नहीं
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
तुम्हारे इश्क़ में हम नंग-ओ-नाम भूल गए
ऐसी हवा बही कि है चारों तरफ़ फ़साद
रखता है इबादत के लिए हसरत-ए-जन्नत