वो वहशी इस क़दर भड़का है सूरत से मिरे यारो
कि अपने देख साए को मुझे हमराह जाने है
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रात दिन यार बग़ल में हो तो घर बेहतर है
आब-ए-हयात जा के किसू ने पिया तो क्या
तू जो कहता है बोलता क्या है
जिस ने आदम के तईं जाँ बख़्शा
मैं जाँ-ब-लब हूँ ऐ तक़दीर तेरे हाथों से
जा भिड़ाता है हमेशा मुझे ख़ूँ-ख़्वारों से
तुम्हारे इश्क़ में हम नंग-ओ-नाम भूल गए
रिश्ता-ए-उमर-दराज़ अपना मैं कोताह करूँ
इस दुख में हाए यार यगाने किधर गए
तिरी निगह से गए खुल किवाड़ छाती के
इश्क़ के शहर की कुछ आब-ओ-हवा और ही है
होवे वो शोख़-चश्म अगर मुझ से चार चश्म