सितम-नवाज़ी-ए-पैहम है इश्क़ की फ़ितरत
फ़ुज़ूल हुस्न पे तोहमत लगाई जाती है
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बहार आई किसी का सामना करने का वक़्त आया
चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल
ख़ुश हूँ कि मिरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया
हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-उल्फ़त छुपा रहा हूँ मैं
शग़ुफ़्तगी-ए-दिल-ए-कारवाँ को क्या समझे
बे-कसी से मरने मरने का भरम रह जाएगा
लम्हा लम्हा बार है तेरे बग़ैर
आज फिर गर्दिश-ए-तक़दीर पे रोना आया
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
रूह को तड़पा रही है उन की याद
सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं
नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता