हुनर-मंद हाथों की मिट्टी से
मैं ने बनाया
जो बहते हुए पानियों पे मकाँ
तो सच ये
ज़माने को कड़वा लगा
मैं कि मज़दूर था
एक मजबूर था
कोई नायाब गौहर न था
मैं कि आज़र न था
ये तो अच्छा हुआ
ऐ ख़ुदा
तू ने रक्खीं सलामत मिरी उँगलियाँ
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ये और बात कि गमले में उग रहा हूँ मैं
हम-मर्तबा न समझो रुत्बा मिरा तो जानो
इज़हार-ए-तशक्कुर
नया लहजा ग़ज़ल का मिस्रा-ए-सानी में रक्खा है
सराबों का सफ़र
मंज़र यूँ था
तिलिस्म-ए-सफ़र
एक इंच मुस्कुराहट
सय्याल तसव्वुर है उबलने की तरह का
किसी ट्रेन के नीचे वो कट गया होता
मूए ने मुँह की खाई फिर भी ये ज़ोर ज़ोरी
घर में आसेब ज़लज़ले का है