मैं ने हाथों में कुछ नहीं रक्खा
ऐसी बातों में कुछ नहीं रक्खा
इक सिवा तेरे दर्द के मैं ने
अपनी आँखों में कुछ नहीं रक्खा
मेरी रातों का पूछते क्या हो
मेरी रातों में कुछ नहीं रक्खा
इक तसल्ली सी है 'रविश' वर्ना
रिश्ते-नातों में कुछ नहीं रक्खा
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पलकों पे सितारा सा मचलने के लिए था
इक शख़्स तेरी बज़्म से ख़ामोश उठ गया
ज़मीं को खींच के मैं सू-ए-आसमाँ ले जाऊँ
दूर तक फैली हुई है तीरगी बातें करो
दीवार की सूरत था कभी दर की तरह था
मिरे अतराफ़ ये कैसी सदाएँ रक़्स करती हैं
मुझे हर शाम इक सुनसान जंगल खींच लेता है
आँखों में हिज्र चेहरे पे ग़म की शिकन तो है
रूह को अपनी तह-ए-दाम नहीं कर सकता
सितारा टूट के बिखरा और इक जहान खुला
इस से पहले कि चराग़ों को वो बुझता देखे