सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
ग़ज़ल कह लें तो जी का बोझ हल्का हो ही जाता है
Gulzar
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मिरा ज़मीर बहुत है मुझे सज़ा के लिए
वो नियाज़-ओ-नाज़ के मरहले निगह-ओ-सुख़न से चले गए
तमाशा
आगे आगे कोई मिशअल सी लिए चलता था
एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
हयात रास न आए अजल बहाना करे
जिस तरफ़ जाऊँ उधर आलम-ए-तन्हाई है
बे-नंग-ओ-नाम
बड़े ख़ुलूस से दामन पसारता है कोई
कौन देता रहा सहरा में सदा मेरी तरह
ख़ौफ़-ए-सहरा