आशुफ़्ता-ख़ातिरी वो बला है कि 'शेफ़्ता'
ताअत में कुछ मज़ा है न लज़्ज़त गुनाह में
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दस्त-ए-अदू से शब जो वो साग़र लिया किए
इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत
है बद बला किसी को ग़म-ए-जावेदाँ न हो
शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता'
तंग थी जा ख़ातिर-ए-नाशाद में
जिस लब के ग़ैर बोसे लें उस लब से 'शेफ़्ता'
जो कू-ए-दोस्त को जाऊँ तो पासबाँ के लिए
फ़साने अपनी मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ
कुछ दर्द है मुतरिबों की लय में
हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
इज़हार-ए-इश्क़ उस से न करना था 'शेफ़्ता'