ऐ ताब-ए-बर्क़ थोड़ी सी तकलीफ़ और भी
कुछ रह गए हैं ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ हनूज़
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मर गए हैं जो हिज्र-ए-यार में हम
हज़ार दाम से निकला हूँ एक जुम्बिश में
मैं वस्ल में भी 'शेफ़्ता' हसरत-तलब रहा
कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं
तूफ़ान-ए-नूह लाने से ऐ चश्म फ़ाएदा
दिल का गिला फ़लक की शिकायत यहाँ नहीं
जिस लब के ग़ैर बोसे लें उस लब से 'शेफ़्ता'
असर-ए-आह-ए-दिल-ए-ज़ार की अफ़्वाहें हैं
शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता'
दिल-ए-बद-ख़ू की किसी तरह रऊनत कम हो
फ़साने अपनी मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ
कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है