दिल-ए-बद-ख़ू की किसी तरह रऊनत कम हो
चाहता हूँ वो सनम जिस में मोहब्बत कम हो
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इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत
कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं
फ़साने अपनी मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ
गह हम से ख़फ़ा वो हैं गहे उन से ख़फ़ा हम
असर-ए-आह-ए-दिल-ए-ज़ार की अफ़्वाहें हैं
शोख़ी ने तेरी लुत्फ़ न रक्खा हिजाब में
इज़हार-ए-इश्क़ उस से न करना था 'शेफ़्ता'
गोर में याद-ए-क़द-ए-यार ने सोने न दिया
इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई
था ग़ैर का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब
है बद बला किसी को ग़म-ए-जावेदाँ न हो