हज़ार दाम से निकला हूँ एक जुम्बिश में
जिसे ग़ुरूर हो आए करे शिकार मुझे
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कुछ दर्द है मुतरिबों की लय में
जो कू-ए-दोस्त को जाऊँ तो पासबाँ के लिए
है बद बला किसी को ग़म-ए-जावेदाँ न हो
शोख़ी ने तेरी लुत्फ़ न रक्खा हिजाब में
बे-उज़्र वो कर लेते हैं व'अदा ये समझ कर
रोज़ ख़ूँ होते हैं दो-चार तिरे कूचे में
कम-फ़हम हैं तो कम हैं परेशानियों में हम
इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई
दिल-ए-बद-ख़ू की किसी तरह रऊनत कम हो
दिल का गिला फ़लक की शिकायत यहाँ नहीं
कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है