हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा
Mir Taqi Mir
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Wasi Shah
Habib Jalib
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कम-फ़हम हैं तो कम हैं परेशानियों में हम
शोख़ी ने तेरी लुत्फ़ न रक्खा हिजाब में
फ़साने यूँ तो मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ
आशुफ़्ता-ख़ातिरी वो बला है कि 'शेफ़्ता'
हज़ार दाम से निकला हूँ एक जुम्बिश में
कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं
इधर माइल कहाँ वो मह-जबीं है
देखूँ तो कहाँ तक वो तलत्तुफ़ नहीं करता
उड़ती सी 'शेफ़्ता' की ख़बर कुछ सुनी है आज
इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई
फ़साने अपनी मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ
जो कू-ए-दोस्त को जाऊँ तो पासबाँ के लिए