जिस लब के ग़ैर बोसे लें उस लब से 'शेफ़्ता'
कम्बख़्त गालियाँ भी नहीं मेरे वास्ते
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कुछ दर्द है मुतरिबों की लय में
इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत
असर-ए-आह-ए-दिल-ए-ज़ार की अफ़्वाहें हैं
मैं वस्ल में भी 'शेफ़्ता' हसरत-तलब रहा
जब रक़ीबों का सितम याद आया
हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम
कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं
उड़ती सी 'शेफ़्ता' की ख़बर कुछ सुनी है आज
यार को महरूम-ए-तमाशा किया
तंग थी जा ख़ातिर-ए-नाशाद में
कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है
है बद बला किसी को ग़म-ए-जावेदाँ न हो