शायद इसी का नाम मोहब्बत है 'शेफ़्ता'
इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई
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कुछ दर्द है मुतरिबों की लय में
कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं
उड़ती सी 'शेफ़्ता' की ख़बर कुछ सुनी है आज
जिस लब के ग़ैर बोसे लें उस लब से 'शेफ़्ता'
मह्व हूँ मैं जो उस सितमगर का
कम-फ़हम हैं तो कम हैं परेशानियों में हम
शोख़ी ने तेरी लुत्फ़ न रक्खा हिजाब में
मर गए हैं जो हिज्र-ए-यार में हम
तंग थी जा ख़ातिर-ए-नाशाद में
गह हम से ख़फ़ा वो हैं गहे उन से ख़फ़ा हम
था ग़ैर का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब