इतना नूर कहाँ से लाऊँ तारीकी के इस जंगल में
दो जुगनू ही पास थे अपने जिन को सितारा कर रक्खा है
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किसी नादीदा शय की चाह में अक्सर बदलते हैं
तेरा चेहरा देख के हर शब सुब्ह दोबारा लिखती है
क्या ख़त्म न होगी कभी सहरा की हुकूमत
जो तसव्वुर में है उस को कोई क्या रौशन करे
रफ़्तार-ए-तेज़-तर का भरम टूटने लगे
टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए
ये धुँद ये ग़ुबार छटे तो पता चले
रात का तारीक-तर पत्थर जिगर पानी करें
ख़ुशी में ग़म मिला लेते हैं थोड़ा
ये एक साया ग़नीमत है रोक लो वर्ना
तुम्हारे ख़्वाब लौटाने पे शर्मिंदा तो हैं लेकिन
मिरी तलाश में उस पार लोग जाते हैं