किधर डुबो के कहाँ पर उभारता है तू
ये कैसा रंग है दरिया तिरी रवानी का
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किसी नादीदा शय की चाह में अक्सर बदलते हैं
मेरे क़दमों पर निगूँ मेरा ही सर है भी तो क्या
दुनिया से दुनिया में रह कर कैसे किनारा कर रक्खा है
तुम्हारे ख़्वाब लौटाने पे शर्मिंदा तो हैं लेकिन
टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए
हैबत-ए-हुस्न से अल्फ़ाज़ की हैरानी तक
दरों को चुनता हूँ दीवार से निकलता हूँ
बस अपनी ख़ाक पर अब ख़ुद ही सुल्तानी करेंगे हम
नख़्ल-ए-दुआ कभी जब दिल की ज़मीं से निकले
अब्र का टुकड़ा कोई बाला-ए-बाम आता हुआ
मियाँ बाज़ार को शर्मिंदा करना क्या ज़रूरी है