क्या ख़त्म न होगी कभी सहरा की हुकूमत
रस्ते में कहीं तो दर-ओ-दीवार भी आए
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अब्र का टुकड़ा कोई बाला-ए-बाम आता हुआ
अगर सुने तो किसी को यक़ीं नहीं आए
इतना नूर कहाँ से लाऊँ तारीकी के इस जंगल में
दरों को चुनता हूँ दीवार से निकलता हूँ
दुनिया से दुनिया में रह कर कैसे किनारा कर रक्खा है
तुम्हारे ख़्वाब लौटाने पे शर्मिंदा तो हैं लेकिन
मिरी तलाश में उस पार लोग जाते हैं
ये धुँद ये ग़ुबार छटे तो पता चले
ख़ुशी में ग़म मिला लेते हैं थोड़ा
रात का तारीक-तर पत्थर जिगर पानी करें
अजब तिलिस्म है नैरंग-ए-जावेदानी का
हैबत-ए-हुस्न से अल्फ़ाज़ की हैरानी तक