रोज़ा-दारान-ए-जुदाई कूँ ख़म-ए-अबरू-ए-यार
माह-ए-ईद-ए-रमज़ां था मुझे मालूम न था
Habib Jalib
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तेरे अबरू की अजब बैत है हाली ऐ शोख़
हाकिम-ए-इश्क़ ने जब अक़्ल की तक़्सीर सुनी
यक निगह सें लिया है वो गुलफ़ाम
मैं न जाना था कि तू यूँ बे-वफ़ा हो जाएगा
जब सीं देखा हूँ यार की सूरत
किया ख़ाक आतिश-ए-इश्क़ ने दिल-ए-बे-नवा-ए-'सिराज' कूँ
मकतब में मिरे जुनूँ के मजनूँ
जो कुछ कि तुम सीं मुझे बोलना था बोल चुका
आया पिया शराब का प्याला पिया हुआ
ख़ाक हूँ ए'तिबार की सौगंद
जब सीं लाया इश्क़ ने फ़ौज-ए-जुनूँ
बगूला जिन के सर पर चत्र-ए-शाही है ज़मीं मसनद