वो तमाशा हूँ हज़ारों मिरे आईने हैं
एक आईने से मुश्किल है अयाँ हो जाऊँ
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मौसम-ए-गुल तिरे इनआ'म अभी बाक़ी हैं
उठो ज़माने के आशोब का इज़ाला करें
नुमूद उन की भी दौर-ए-सुबू में थी कल रात
हुजूम-ए-गुल में रहे हम हज़ार दस्त दराज़
और खुल जा कि मआ'रिफ़ की गुज़रगाहों में
बग़ैर-ए-साग़र-ओ-यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे
बग़ैर साग़र ओ यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे
साग़र उठा के ज़ोहद को रद हम ने कर दिया
शौक़ रातों को है दर पे कि तपाँ हो जाऊँ
हम आहुवान-ए-शब का भरम खोलते रहे
मैं ने कहा कि तजज़िया-ए-जिस्म-ओ-जाँ करो