रोज़ दोहराते थे अफ़्साना-ए-दिल
किस तरह भूल गया याद नहीं
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नज़्म
अफ़्साना-ए-ग़म है शादमानी मेरी
वो मुझ से हुए हम-कलाम अल्लाह अल्लाह
ये आज आए हैं किस अजनबी से देस में हम
कितनी फ़रियादें लबों पर रुक गईं
ज़िंदगी क्या है इक सफ़र के सिवा
किसी में ताब-ए-अलम नहीं है किसी में सोज़-ए-वफ़ा नहीं है
जाने किस की थी ख़ता याद नहीं
निगाहें दर पे लगी हैं उदास बैठे हैं
मिटी मिटी हुई यादों के दाग़ क्या जलते?
वो थे पहलू में और थी चाँदनी रात
बादल