लहू फ़क़ीरों का सोज़ यक़ीं से था जब गर्म
वो नोचते थे गरेबान बादशाहों के
रही न सीने में जिस दम हरारत-ए-ईमाँ
सिमट के रह गए गोशों में ख़ानक़ाहों के
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जाने किस की थी ख़ता याद नहीं
सब सब्र-ओ-शकेब-ओ-होश खो देता हूँ
लहू फ़क़ीरों का सोज़-ए-यक़ीं से था जब गर्म
इश्क़ की इब्तिदा है सोज़-ए-दरूँ
ज़िंदगी क्या है इक सफ़र के सिवा
हर ज़र्रा उभर के कह रहा है
अफ़्साना-हा-ए-दर्द सुनाते चले गए
या क़ल्ब को दर्द में डुबोना सीखो
मोहब्बत किस क़दर सेहर-आफ़रीं मालूम होती है
ऐसे भी थे कुछ हालात
हर ज़हर को तिरयाक़ समझ कर पी लो
ज़बाँ करती है दिल की तर्जुमानी देखते जाओ