अजब नहीं कि हो दीवार नुक़्ता-ए-मौहूम
मकान हो कि मकीं दो दिलों का मिलना देख
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ज़ेब उस को ये आशोब-ए-गदाई नहीं देता
अजीब शय है तरह-दार भी तमन्ना भी
लरज़ रहा था फ़लक अर्ज़-ए-हाल ऐसा था
ख़याल है कि हक़ीक़त है या फ़साना है
दरख़्शाँ हो जो वो मह-ज़ादा-ए-शब
इस तरह चश्म-ए-नीम-वा ग़ाफ़िल भी थी बेदार भी
वो ख़ुद को मेरे अंदर ढूँडता है
सुख़न की शब लहू होती रहेगी
कहीं शो'ला कहीं शबनम, कहीं ख़ुशबू दिल पर
जिसे ना-ख़्वाब कहते हैं उसी को ख़्वाब कहते हैं
ख़ाकसारों से क़रीं रहता है
मैं पर-शिकस्ता न था बादलों के बीच मगर